सोमवार, दिसंबर 21, 2009


एड्स जागरुकता में भारतीय मीडिया की भूमिका

लव कुमार सिंह




भारत में सबसे पहले 1986 में एड्स का पहला मामला सामने आया था और अब हाल यह है कि लगभग चौबीस सालों के बाद किसी और देश के मुकाबले भारत में एच आई वी संक्रमितों की संख्या सबसे ज्यादा हो गई। एक अनुमान के मुताबिक भारत में इस समय एड्स मरीजों की संख्या लगभग 5.5 करोड़ है और हर साल लगभग 6 लाख नये मरीज इसमें जुडते जा रहे हैं।
भारत सरकार ने इन चौबीस सालों में एड्स को फैलने से रोकने के लिए बहुत कुछ किया है। सरकार के इस अभियान में देश और विदेश की कई संस्थाएं भी अपना योगदान दे रही हैं। सरकार ने इन दो दशकों में एड्स के रोकथाम और लोगों को इसके प्रति जागरुक करने में करोड़ों रुपये खर्च किया है। वहीं इस बीमारी को लेकर समाजीक बुराई भी जुड़ी हुई है। अगर लोगों को किसी व्यक्ति के बारे में एड्स का मरीज होने की खबर मिलती है तो वे लोग प्रभावित व्यक्ति से दूरी बना उसका समाजिक बहिष्कार तक करते है।
भारत जैसे देश में जहां लगभग आधी अबादी अनपढ़ है वहां मीडिया अपना रोल प्रभावि ढंग निभा सकती है। आज भारतीय मीडिया देश में समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव में प्रमुख भुमिका अदा रही है। वहीं एच आई वी एड्स से जुड़े मामलों को भी भारतीय मीडिया ने प्रमुखता से स्थान देना शुरू कर दिया है। खासकर बड़े शहरों में एच आई वी एड्स से जुड़ी स्टोरी अखबारों में देखी जा सकती है। वहीं अगर भारत के छोटे शहरों और गांव,देहात की बात करें तो अभी भी खास कर प्रिंट मीडिया वहां प्रभावी ढंग से अपना काम नहीं कर पा रही है। आज एड्स जैसे गंभीर मामले को लेकर पिछड़े इलाकों में जैसी पत्रकारिता होनी चाहिए वैसी नहीं हो पा रही । वहीं मीडिया प्रतिष्ठानों और संस्थाओं के तरफ से भी इस दिशा में कोई खास पहल देखने को नहीं मिल रहा। गांव, देहात और पिछड़े इलाकों में काम कर रहे मीडियाकर्मियों को स्थाई रुप नहीं दिया जाता,वहीं काम करने की खराब स्थिति, कम वेतन, और इन इलाकों में स्थाई कार्यालय न होना भी इसकी वजह हो सकती है। आज यह खराब स्थिति क्षेत्रिय मीडिया में साफ देखी जा सकती है। वहीं इन सब कठिनाईयों के होते हुए भी मीडिया अभी भी लोगों के बीच एड्स जैसे खतरनाक बीमारी की जानकारी का प्रचार प्रसार कर अपना प्रमुख भूमिका अदा कर रही है। साथ ही जरुरत इस बात की है कि इस बीमारी से लडने के लिए मीडिया प्रतिष्ठानों और संस्थाओं को आगे आना चाहिए। इन लोगों को एक खास ट्रेनिंग प्रोग्राम बनाकर पत्रकारों को इस दिशा में ट्रेंड करने की आवश्यकता है।क्योंकि मीडिया से जुड़े लोगो ही समाज में एच आई वी एड्स जैसे खतरनाक बीमारियों के संबंध में प्रभावी तरीके से जागरुकता पैदा कर सकते हैं।
हालांकि प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने इस बीमारी से जुड़ी खबरों को खास जगह देना शुरू कर दिया है। यही वजह है कि आज एच आई वी एड्स से जुड़ी स्टोरी हम टी वी और अखबारों में देख और पढ़ सकते हैं। वहीं यह भी देखा गया है कि ऐसे गंभीर मुद्दे को लेकर जो रिपोर्टींग होती है वह बहुत ही लापरवाह ढंग से होती है। जिसके वजह से प्रभावित व्यक्ति के प्रति समाज में भेद भाव पैदा हो जाता है।
देश के कुछ राज्यों में जहां क्षेत्रिय भाषा के अखबार एड्स जैसे गंभीर मामलों को तो जोरदार तरीके से उठाते है पर उनकी रिपोर्टींग स्तरहीन होती है। अगर हम देश के बड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार की बात करे तो राज्य की भाषायी अखबारों जिसमें हिंदी और उर्दू शामिल हैं, में काफी कम मात्रा में इस प्रकार की खबर छापी जाती है। वहीं एड्स जैसे मुद्दे पर इन अखबारों के लिए काफी कुछ करना बाकी है। गांव देहात में मीडिया सरकार और एनजीओ के साथ मिलकर जिला ,ब्लॉक और पंचायत स्तर पर इस बीमारी से जुड़ी खबरों का प्रचार प्रसार कर लोगों में जागरुकता पैदा कर सकती है। मीडिया के माध्यम से ही एड्स को लेकर लोगों के विचार बदले जा सकते है। ये मीडिया ही है जो अगर चाहे तो लोगों में एड्स को लेकर जो दुर्भावनाएं हैं उन्हें बदल सकती है और एड्स प्रभावित व्यक्ति के लिए समाज में एक स्थान दिला सकती है। जरुरत इस बात कि है कि मीडिया को एनजीओ और सरकार के साथ मिलकर एड्स से जुड़ी हुई ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक स्टोरी करनी चाहिए। लोगों को बताए कि एड्स के साथ भी वे बडे आसानी से अपना जीवन जी सकते हैं। हालांकि आजकल अखबारों और टी वी में ऐसी भी स्टोरी दिखाई जा रही है जिसमें ´´एड्स पीड़ित व्यक्ति अपने जीवन से तंग आकर परिवार सहित खुदकुशी कर लेता है।´´ तो कभी खबर होती है कि एच आई वी ग्रस्त छात्र को स्कूल से निकाल दिया गया। कुछ अखबारों में इस तरह की खबरों को बडे़ ही लापरवाही से पेश किया जाता है और कभी कभी शब्दों का चयन भी इस प्रकार से किया जाता है कि इस तरह की खबरें आग में घी का ही काम करती हैं।
आज मीडिया के लिए इस क्षेत्र में करने के लिए बहुत कुछ है। सरकार को भी चाहिए कि मीडिया के जरिए वह ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण और प्रकाशन करे जिससे आम लोग सीधे जुड़ सके। दिनों दिन एड्स की बिकराल होती स्थिति को देखते हुए इस पर खास प्रोग्राम बनाना चाहिए और लोगों को सीधे इस प्रोग्राम से जोडना चाहिए। इस प्रकार के प्रोग्रामों में ऐसी भी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे अगर कोई चाहे तो अपने क्षेत्रिय भाषा में भी सवाल कर सके। सरकार द्वारा स्कूलों के सीनियर क्लासों में इस बीमारी के बारे में जो जानकारियां दी जा रही है वह एक अच्छी पहल मानी जा सकती है वहीं मीडिया इस बिषय में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने की कोशिश कर सकती है।
आज की भारतीय मीडिया समाज में अपना एक प्रमुख और अहम रोल निभा सकती है। वहीं देखा गया है कि मीडिया एनजीओ और सरकार में एड्स जैसे विषय को लेकर एकरुपता नहीं है। जिसके वजह से आज एनजीओ अपना काम प्रभावी ढंग से नहीं कर पा रहे वहीं इस संबंध में विशेषज्ञों की राय आम लोगों तक सही ढंग से नहीं पहुंच पा रही। आज जरुरत इस बात की है कि सरकार, मीडिया, एनजीओ और आम लोग आपस में मिलकर इस बीमारी से लडे़ तभी हम इसमें कामयाब हो सकते है।




शनिवार, अगस्त 15, 2009


दिल्ली के स्कूलों में 13 अगस्त को मनाया गया स्वतंत्रता दिवस .....



स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस मनाने को लेकर मेरे मन पर एक अलग ही छाप है। अगर बात करुं बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश कि तो यहां स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को ही मनाया जाता है। उसी तरह 26 जनवरी को ही गणतंत्रता दिवस मनाया जाता है। मुझे अब भी याद है कि इस पावन पर्व पर हम लड़को की टोली भोर में ही उठकर जंगल में फूल तोड़ने के लिए जाती थी ।स्कूल का प्रांगन एक दिन पहले ही गोरकी माटी और गोबर से लिप-पोत दिया जाता था । इस दिन को मनाने को लेकर हम बच्चों में एक अलग ही ज़ज्बा होता था। तिरंगा बनाने के लिए दूकान से उजला ताव( ए फोर कागज़) ले कर आते थे। साथ ही गुमटी से चुना भी लाते थे। जब घर में तरकारी के लिए मसाला पिसा जाता था तो उसमें से हल्दी ले लेते थे और चुना के साथ मिलाकर केसरिया रंग बनाते थे। इसी तरह हरा रंग के लिए सीम के पत्तों (बिन्स के पत्ते) को मसल कर हरा रंग निकालते थे और उसी रंग को तिरंगा में हरा रंग देते थे। झंडे में चक्र बनाने के लिए ढिबरी ( मिट्टी तेल का दिया) में लगा काला पदार्थ ही काम आता था। झंडे के लिए डंडे के रुप में सरकंडे का ही प्रयोग करते थे। इस दिन प्रभात फेरियों का भी अपना ही एक अहसास था। रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीता राम..और बंदे मातरम जैसे भजन और राष्ट्रीय गीत गाए जाते थे। झंडा फहराने के बाद शुरु होता था देश भक्ती गीतों का गायन इसमें सबसे अच्छा गाने वाले को मास्टर जी इनाम के रुप में कलम देते थे। गांव वालों के मौजुदगी में इनाम पाने पर एक अलग ही गर्व की अनुभूती होती थी। इन कार्यक्रमों के खत्म होने के बाद हमें गर्म-गर्म जलेबियों का इंतजार रहता था। बरगद के पतों में गर्म-गर्म जलेबियां ....लिखते हुए मुंह में पानी आ रहा है। इस दिन हर गांव में ऐसा ही माहौल देखने को मिलता था। एक मेला जैसा लग जाता था इस दिन । तो ये था हमारे बचपन का स्वतंत्रता और गणतंत्रता दिवस। वहीं दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस एक दिन पहले यानी 14 अगस्त यानी पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस के दिन मनाया जाता है। दिल्ली के स्कूलों में इस दिन मास्टर जी अपने भाषण में कहते है कि "आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमारा स्कूल......." मतलब 14 अगस्त को ही हम अपना स्वतंत्रता दिवस मना कर खुश हो लेते है। अगर 14 अगस्त को कोई छुट्टी पड़ जाती है जैसा की इस बार हुआ, तो हम 13 अगस्त को ही अपना स्वतंत्रता दिवस मना लेते है।सच कहूं तो दिल्ली के स्कूलों में मनाने जाने वाला स्वतंत्रता और गणतंत्रता दिवस में वो लगाव, वो बात नज़र नहीं आती। इस वजह से स्कूली बच्चों में वो भावना पैदा नहीं हो पाती। उन्हें पता ही नहीं चल पाता है कि स्वतंत्रता और गणतंत्रता दिवस मनाने की कितनी खुशी मिलती है। एक अलग ही अहसास होता है इस दिन का। दिल्ली में ऐसा क्यों होता है? क्या दिल्ली में स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस उसी दिन इसलिए नहीं मनाया जाता कि उस दिन केन्द्र सरकार का अपना ही भव्य कार्यक्रम होता है? अगर ऐसा होता है तो यह अच्छी बात नहीं है। मुझे लगता है कि दिल्ली के स्कूल इस दिन दिल्ली की सुरक्षा में बिना कोई बाधा पैदा किये स्वतंत्रता और गणतंत्रता दिवस मना सकते है। दिल्ली सरकार को इस बारे में सोचना चाहिए।